आज की कविताः डर

लोग डरते हैं भूत और प्रेतों से
मैं डरती हूं धरती के उन लोगों से
जो अपनों का खून बहा रहे हैं
बलात्कारियों के कंधे से कंधा
मिला रहे हैं और
लोगों को ज़िंदा जला रहे हैं।

लोग डरते हैं, गरीबी से, बदहाली से
मैं डरती हूं, अमीरी से, खुशहाली से
जो भाई को भाई का
दुश्मन बना रही है
नाते-रिश्ते तुड़वा रही है
प्यार मोहब्बत छुड़वा रही है
बाप को बेटे से पिटवा रही है
दिनदहाड़े उसे अगवा करवा रही है।

लोग डरते हैं मौत से
मैं डरती हूं इस जिन्दगी से
जो दिन-ब-दिन खोखली
होती जा रही है
नरक से भी बदतर होती जा रही है
ना खाने को रोटी, ना तन पर कपड़ा
ना कोई काम,
ना सिर छिपाने को जगह है
चारों ओर है, डर और खौफ़
जाने कब हो जाए, अपनों की फौत।

लोग डरते हैं जंगल में जाने से
खूंखार जानवरों से, उनके भय से
मर जाने से पर
मैं डरती हूं, इस शहर के पहरेदारों से,
जंगल के जानवर तो फिर भी
पकड़े और मारे जा सकते हैं
पर इन पहरेदारों पर तो
ना शक होता है ना शुबा
लगता है, सभी तो हमारे हैं।

करना होगा सामना बलात्कारियों का
गरीबी का, अगवा करने वालों का
और पहरेदारों के खौफ़ का,
ना जाने ये डर कब खत्म होगा
कब जागेंगे लोग, कब सवेरा होगा
उठो, जागो, सामना करो इस अंधेरे का
और स्वागत करो,
इस अंधेरी रात के बाद
आने वाले उजाले का।

  • डॉ. प्रज्ञा शारदा, 401/43 ए, चंडीगढ़। 9815001468
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