आज की कविताः मैं समझ नहीं पाई…

प्रसव पीड़ा को सहती हुई
उसकी चीख
पहुंच गई वहां
जहां निवास करती है
सृष्टि।
निढाल हो
परास्त सा महसूस
करती है
जब पता चलता है
कि
पैदा हुई है बेटी।
क्योंकि
बेटी के आने से
न होता है कोई
खुश
न मिलती है बधाई
पड़ी रहती है
अकेली
छा जाता है
सन्नाटा चारों ओर
हो जाते हैं सब खामोश।
न कोई पूछता है
न बूझता है
न पास आता है
न हाल पूछता है
बस मिलती है
सबसे जुदाई।
बेटा होता
तो विपरीत होता
लोगों का हुजुम्ब
लग जाता
कोई मुझे चूमता
कोई उसे चूमता
कोई गले लगाता
कोई सिर पर
हाथ फेरता
तो कोई बच्चा
गोदी में उठा
उसका चेहरा निहारता
तुझ पर गया है
मुझ पर गया है
के क्यास लगाए जाते
लड्डू बांटे जाते
ढ़ोल वाला आता
नगाड़े बजाए जाते
हिजड़े आते
नाचते-गाते
पैसे, जेवर
मांग ले जाते
और मिलती
खूब बधाई।
प्रसव पीड़ा
एक नया जन्म
होता है स्त्री का
आती है स्त्री वापस
मौत के मुंह से
पर लड़के की चाहत में
धकेला जाता है उसे
फिर से।
तभी तो
स्त्री भी चाहती है
कि न हो बेटी,
बेटा जन्मे
पहली ही बार में
नहीं तो उसे दोबारा
उस राह जाना पड़ेगा
जहां उसे
फिर से बेटी
हो जाने के
भय का
दर्द सहना पड़ेगा।
लड़का हो
या लड़की
भला स्त्री के
हाथ में है क्या?
सब इस सच्चाई को
जान कर भी
क्यों लेते हैं
आंखें मूंद
मैं समझ नहीं पाई
मैं समझ नहीं पाई।

  • डॉ. प्रज्ञा शारदा, चंडीगढ़।

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