आज की कविताः पेड़ होना परम्परा है…

जैसे पेड़ का जुडऩा जरूरी है धरती से
लहरों का जुडना जरूरी है नदी से
और धूप का जुडऩा जरूरी है सूरज से
वैसे ही

आदमी का जुडना जरूरी है परम्परा से
पेड़, लहरें और धूप
धरती की शाश्वत परम्परायें
ही तो हैं दरअसल

पिता
जैसे नींव है आदमी की
वैसे ही परम्परा नींव है
पिता की

जैसे धरती का अस्तित्व सूरज से
वैसे ही आदमी का अस्तित्व
परम्परा से है
दिन के बाद
रात का आना और रात के बाद
फिर दिन का उदित होना
परम्परा का आदिम रूप ही तो है

और धरती जो घूम रही है
सूरज के गिर्द वही नहीं है क्या परम्परा
धरती का अपनी मिट्टी से जुड़ाव

दरअसल लौटना
अपनी मिट़्टी की ओर
परम्परा की ओर लौटना है
और परम्परा पिता है
नदी है
धूप है

पेड होना भी परम्परा है
और मानवीय अस्मिता को अर्थ
मिलना भी
परम्परा ही है।

  • कवि प्रेम विज, 1284 सैक्टर-37 सी, चंडीगढ़, 160036
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