विचार-मंथनः देश की राजनीति की दिशा तय करेंगे पांच राज्यों के चुनाव

वो दल, जो केवल हिंदी भाषी राज्यों तक सीमित था, आज असम में अपनी सरकार बचाने के लिए मैदान में है। केरल तमिलनाडु और पुड्डुचेरी जैसे राज्यों में अपनी जड़ें जमा रहा है तो पश्चिम बंगाल में प्रमुख विपक्षी दल है।

चार राज्यों और केंद्र शासित प्रदेश पुड्डुचेरी में विधानसभा चुनाव हो रहे हैं। जहां पुडुचेरी, केरल और तमिलनाडु में 6 अप्रैल को एक ही चरण में मतदान होगा, वहीं पश्चिम बंगाल में आठ चरणों में तो असम में तीन चरणों में वोटिंग करवाई जा रही है। भारत केवल भौगोलिक दृष्टि से एक विशाल देश नहीं है, अपितु सांस्कृतिक विरासत की दृष्टि से भी अपार विविधता को अपने भीतर समेटे है। एक ओर खान-पान, बोली, मजहबी एवं धार्मिक मान्यताओं की यह विविधता इस देश को सांस्कृतिक रूप से समृद्ध तथा खूबसूरत बनाती है तो दूसरी ओर यही विविधता इस देश की राजनीति को जटिल और पेचीदा भी बनाती है लेकिन पिछले कुछ वर्षों में देश की राजनीति की दिशा में धीरे-धीरे किंतु स्पष्ट बदलाव देखने को मिल रहा है। तुष्टीकरण की राजनीति को सबका साथ-सबका विकास और वोटबैंक की राजनीति को विकास की राजनीति चुनौती दे रही है। यही कारण है कि इन पांच राज्यों के ताजा चुनाव परिणाम देश की राजनीति की दिशा तय करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले सिद्ध होंगे। इतिहास में अगर पीछे मुड़कर देखें तो आजादी के बाद देश के सामने कांग्रेस और कम्युनिस्ट पार्टी के अलावा राष्ट्रीय स्तर पर कोई और विकल्प मौजूद नहीं था। धीरे-धीरे क्षेत्रीय दल बनने लगे, जो धीरे-धीरे ही अपने-अपने क्षेत्रों में मजबूत होते गए लेकिन ये दल क्षेत्रीय ही बने रहे, अपने-अपने क्षेत्रों से आगे बढ़कर राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस का विकल्प बनने में कामयाब नहीं हो पाए। इसका दूसरा पहलू यह भी रहा कि समय के साथ ये दल अपने-अपने क्षेत्रों में कांग्रेस का मजबूत विकल्प बनने में अवश्य कामयाब हो गए। आज स्थिति यह है कि विधानसभा चुनावों में कांग्रेस जैसी राष्ट्रीय स्तर की पार्टी इन क्षेत्रीय दलों के साथ गठबंधन करके चुनाव लड़ कर अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रही है। वहीं, लोकसभा आम चुनावों में कांग्रेस की स्थिति का आंकलन इसी तथ्य से लगाया जा सकता है कि वह लगातार दो बार से अपने इतने प्रतिनिधियों को भी लोकसभा में नहीं पहुंचा पा रही कि सदन को नेता प्रतिपक्ष दे पाए। उसे चुनौती मिल रही है एक ऐसी पार्टी से, जो अपनी उत्पत्ति के समय से ही तथाकथित सेक्युलर सोच वाले दलों ही नहीं, वोटरों के लिए भी राजनीतिक रूप से अछूत बनी रही। 1980 में अपनी स्थापना, 1984 के लोकसभा आम चुनाव में मात्र दो सीटों पर विजय, फिर 1999 में एक वोट से सरकार गिरने से लेकर 2019 के लोकसभा चुनाव में 303 सीटों तक का सफर तय करने में बीजेपी ने जितना लम्बा सफर तय किया है, उससे कहीं अधिक लम्बी रेखा अन्य दलों के लिए खींच दी है। क्योंकि आज वह पूर्ण बहुमत के साथ केवल केंद्र तक सीमित नहीं है, बल्कि लगभग 17 राज्यों में उसकी सरकारें हैं। वह दल, जो केवल हिंदी भाषी राज्यों तक सीमित था, आज असम में अपनी सरकार बचाने के लिए मैदान में है, केरल तमिलनाडु और पुड्डुचेरी जैसे राज्यों में अपनी जड़ें जमा रहा है तो पश्चिम बंगाल में प्रमुख विपक्षी दल है।

असम की अगर बात करें तो घुसपैठ से परेशान स्थानीय लोगों की वर्षो से लंबित एनआरसी की मांग को लागू करना, बोडोलैंड समझौता, बोडो को असम की ऑफिशियल भाषा में शामिल करना, डॉ. भूपेंद्र हज़ारिका सेतु, बोगिबिल ब्रिज, सरायघाट ब्रिज जैसे निर्माणों से असम को नार्थ-ईस्ट के अलग-अलग हिस्सों से जोड़ना। कालीबाड़ी घाट से जोहराट का पुल और धुबरी से मेघालय में फुलबारी तक पुल, जो असम और मेघालय की सड़क मार्ग की करीब ढाई सौ किलोमीटर की वर्तमान दूरी को मात्र 19 से 20 किमी तक कर देगा, जैसे विकास कार्यों के साथ भाजपा की वर्तमान सरकार जनता के सामने है। वहीं, अपनी खोई जमीन पाने के लिए संघर्षरत कांग्रेस ने अपनी पुरानी तर्ज पर ही चलते हुए सत्ता में आने पर सीएए को निरस्त करने, सभी परिवारों को 200 यूनिट तक बिजली मुफ्त देने, राज्य की हर महिला को 2000 रूपए प्रति माह देने और 5 लाख नौकरियां देने जैसे वायदे किए हैं।

बंगाल की बात करें तो यहां लगभग 34 वर्षों तक शासन करने वाली लेफ्ट और 20 वर्षों तक शासन करने वाली कांग्रेस दोनों ही रेस से बाहर हैं। विगत दो बार से सत्ता पर काबिज तृणमूल कांग्रेस का एकमात्र मुख्य मुकाबला भाजपा से है। उस भाजपा से, जिसका 2011 के विधानसभा चुनाव में खाता भी नहीं खुला था। इससे भी दिलचस्प बात यह है कि जिस हिंसा और भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाकर ममता बनर्जी ने वाम का 34 साल पुराना किला ढहाया था, आज उनकी सरकार के खिलाफ भाजपा ने उसी हिंसा और भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाया है।

केरल की अगर बात करें तो यहां लेफ्ट और कांग्रेस आमने-सामने हैं। यह अलग बात है कि अन्य राज्यों में लेफ्ट उसका सहयोगी है। अभी तक ऐसा देखा गया है कि हर पांच साल में दोनों बारी-बारी से सत्ता में आते हैं। इसलिए कांग्रेस को उम्मीद है कि इस बार उसकी सत्ता में वापसी हो सकती है। क्या होता है, यह तो समय ही बताएगा लेकिन चूंकि राहुल गांधी केरल से लोकसभा पहुंचे हैं तो जाहिर तौर पर कांग्रेस के लिए केरल की जीत मायने रखती है। भाजपा की अगर बात करें तो 2011 में उसे केरल विधानसभा में मात्र एक सीट मिली थी और इस बार वह मेट्रो मैन ई श्रीधरन की छवि और अपने विकास के वायदे के साथ मैदान में है। वहीं, अपनी सत्ता बचाने के लिए मैदान में उतरे लेफ्ट ने स्थिति की गंभीरता को समझते हुए चुनाव से पहले सबरीमाला से जुड़े सभी केसों को वापस लेने का फैसला लिया। जाहिर है गैर हिंदी भाषी केरल में भाजपा वर्तमान में अवश्य अपनी जमीन तलाश रही है लेकिन उसकी निगाहें भविष्य पर हैं। यही कारण है कि कांग्रेस और लेफ्ट भले ही केरल में एक-दूसरे के प्रतिद्वंद्वी हैं लेकिन दोनों का ही मुख्य मुकाबला भाजपा से है।

पुड्डुचेरी की अगर बात करें तो यहां की कांग्रेस सरकार चुनाव से ऐन पहले गिर गई। यह दक्षिण में कांग्रेस की आखिरी सरकार थी। यहां भी भ्रष्टाचार मुख्य चुनावी मुद्दा है। राहुल गांधी के पुड्डुचेरी दौरे पर एक महिला की शिकायत का मुख्यमंत्री द्वारा गलत अनुवाद करने का वीडियो पूरे देश में चर्चा का विषय बना था और पुड्डुचेरी सरकार की हकीकत बताने के लिए काफी था। हालांकि यहां भी भाजपा का अब तक कोई वजूद नहीं था लेकिन आज वह मुख्य विपक्षी दल है।

तमिलनाडु एक ऐसा प्रदेश है, जहां हिंदी भाषी नेता लोगों को आकर्षित नहीं करते लेकिन ऐसा 40 सालों में पहली बार होगा जब यहां के दो दिग्गज जयललिता और करुणानिधि के बिना चुनाव हो रहा है। जयललिता छह बार और करुणानिधि पांच बार मुख्यमंत्री रह चुके हैं। इस बार भी टक्कर एआईएडीएमके और डीएमके के बीच ही है। डीएमके और कांग्रेस यहां मिलकर चुनाव लड़ रहे हैं, जबकि भाजपा एआईएडीएमके के साथ गठबंधन में है। जयललिता या करुणानिधि जैसे चेहरे के अभाव में जनता किसको चुनती है, यह तो समय बताएगा लेकिन यहां के चुनावी मुद्दे की बात करें तो सबसे बड़ा मुद्दा भाषा का होता है। दरअसल, तमिल भाषा दुनिया की सबसे पुरानी भाषा है। राहुल गांधी ने अपने हाल के दौरे में लोगों को भरोसा दिलाया कि तमिल यहां की पहली भाषा होगी। यहां के लोगों पर अन्य कोई भाषा नहीं थोपी जाएगी। वहीं, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी मन की बात कार्यक्रम में कहा कि उनमें एक कमी यह रह गई कि वह तमिल भाषा नहीं सीख पाए।

कहा जा सकता है कि पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, केरल और पुडुचेरी जहां कभी क्षेत्रीय दलों का वर्चस्व था, आज भाजपा वहां सबसे मजबूत विपक्ष बनकर उभरा है। जाहिर है कि वर्तमान परिस्थितियों में इन राज्यों के चुनाव परिणाम न सिर्फ इन राजनीतिक दलों का भविष्य तय करेंगे, बल्कि काफी हद तक देश की राजनीति का भी भविष्य तय करेंगे।

  • डॉ. नीलम महेंद्र (लेखिका वरिष्ठ स्तम्भकार हैं)
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